पहले पहाड़ों में
छोटे से गाँव में रहता था
छोटी छोटी कंकरीली
पगडंडियों से
आना जाना आफत
लगता था
कहीं भी जाना हो
समय बहुत लगता
निरंतर सोचता
शहर जैसी सडकें होती तो
कितना अच्छा होता
फौरन यहाँ से वहाँ पहुंचता
अब बरसों की इच्छा पूरी हुयी
शहर में नौकरी लग गयी
आज वो डामर की सड़क पर
मक्खन पर चाकू चले
ऐसे चल रहा
ऐसा लग रहा जैसे
उड़ कर जा रहा
बहुत खुश था
मगर ज्यादा वक़्त
ना रह सका
जब व्यस्त सड़क पर पहुंचा
आती जाती गाड़ियों के
धुएं से पाला पडा
नाक में धुएं को सूंघते सूंघते ,
दर्द से सर फटने लगा
सड़क के दोनों तरफ
पेड़ों का नामों निशाँ ना था
दोनों तरफ की झाड़ियाँ धुएं से
काली पड गयी थी
पोलीथीन की थैलियों,
गुटके के पाउचों से भरी थी
तभी चलती कार से
किसी ने पीक मारी
छींटों ने चेहरा और
कमीज़ खराब कर दी
चेहरा रुमाल से साफ़ किया
होर्न की आवाजों और धुएं ने
सर दर्द बढ़ा दिया
फौरन घर लौटने का
फैसला किया
लौटते हुए सोचने लगा ,
गाँव का रास्ता
पथरीला और छोटा सही
मगर गंदा ना था ,
ना धुंआ ना शोर था
पेड़ों की छाया से ढका था ,
झाड़ियों में फूलों का
मेला होता था
शोर की जगह
कोयल की कूंक और
बुलबुल की र्चीच्यू ,
मोर की पियाऊँ सुनायी देती
ठंडी बयार मन को
शांत रखती
समझ नहीं आता
क्यूं इंसान निरंतर गाँव से
शहर की ओर भागता
ज्यादा पैसे और
भौतिक सुखों के सिवा
सब कुछ खोता
ऐसा लगता जैसे
भद्दा चेहरा अच्छे
मेकअप से
विकृत शरीर सुन्दर
कपड़ों से ढका है
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
442—112-03-11
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