वो डरती डरती
घर से बाहर निकलती,
मिठाई पर मक्खियाँ भिनकती
वैसे ही मनचलों की नज़रें
उसे घूरती
खाने को लपलपाती रहती
कहीं से सीटी बजती,
कभी कोई फब्ती सुनाई देती
हवस के दीवानों से बचती बचाती
सहमती हुयी,,किसी तरह बस पकडती
बस में भी बहुत कुछ सहती
हर निगाह गिद्ध सी द्रष्टि से देखती
कोई कोहनी शरीर को छूती
किसी हाथ की नापाक हरकत होती
वो निरंतर खून का घूँट पीती
किसी तरह बर्दाश्त करती
उसे नारी क्यूं बनाया
परमात्मा से सवाल करती
सकुशल गंतव्य पर पहुँचने की
दुआ करती
निरंतर आशंकित सहमती
जीवन जीती जाती
खुश किस्मत अपने को मानती
जब तक किसी गिद्ध के चंगुल में
ना फंसती
नारी को कितना सहना होता
सिर्फ नारी ही जानती
15—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
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