431—101-03-11
मेरा क्या कसूर
जो मैं तुम्हें चाहता
तुम्हारे हुस्न को देख
क्या करता
खुदा को नाराज़ करता
या उसकी कारीगरी की
कद्र ना करता
तुम्हें भी कहाँ अच्छा लगता
गर हुस्न की बेकद्री करता
दिल तुम्हारा भी दुखता
निरंतर उल्हाना मिलता
बे अक्ल कहा जाता
इलज़ाम सुन
दिल मेरा भी दुखता
माफ़ कभी खुद को
ना करता
दो दिल दुखाने से अच्छा
दिलों को एक करना होता
इसलिए तुम्हें चाहता
दीदार का इंतज़ार करता
घर के बाहर खडा रहता
14—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
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