Tuesday, March 15, 2011

कभी निरंतर महकता था



मैं एक फूल हूँ
कभी निरंतर
महकता था
वक़्त के साथ मुरझा
गया
धीरे धीरे सूख रहा
मगर अभी झडा नहीं
खुशबू कम हुयी मगर
गयी नहीं  
उम्र के जिस मुकाम पर
खडा हूँ
इक दिन मैं भी सूख
जाऊंगा
जीवन के पौधे से
झडूंगा
मिट्टी में मिलूंगा
महक सूखे पत्तों में
भी होगी
जाने के बाद भी
निराशा नहीं होगी
15—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
438—108-03-11


 

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