वो निरंतर
ऐसा ही करती
मेरा फ़ोन नहीं उठाती
बार बार रीडायल करते करते
ऊँगलियाँ थकती
मन में घबराहट होती
चेहरे पर चिंता की लकीरें
साफ़ दिखती
इश्वर को याद करता रहता
वो ठीक से हो, प्रार्थना करता
ध्यान कहीं और लगाने की
कोशिश करता
मगर ऐसा ना होता
बार बार निगाहें घड़ी को देखती
बेचैनी बढ़ती जाती
अजीब अजीब आशंकाएं
दिमाग में आती
किसी मिलने वाले का
नंबर ढूंढता
उसे फ़ोन मिलाता शायद
उसे कुछ पता हो
यहाँ भी निराश होना पड़ता
कमरे में इधर उधर घूमता
क्रोध भी आने लगता
क्यों कहना नहीं मानती
कितनी बार समझाया
घंटे दो घंटे में फ़ोन किया करो
अपनी खैरियत बताया करो
इस बार फिर डांट
लगाऊंगा
फिर ऐसा नहीं करे वादा
करवाऊंगा
मन बहुत परेशान होता
अपने को असहाय पाता
हनुमान चालीसा का पाठ
करना शुरू करता
तभी फ़ोन की घंटी बजती
बिटिया की आवाज़ आती
पापा आई ऍम सौरी
फ़ोन साईंलेंस मोड़ पर था
आपके फ़ोन का पता ना चला
मेरी सांस में सांस आती
आँखें नम हो जाती
दिल में खुशी की
अजीब सी अनुभूति
होती
16—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
440—110-03-11
3 comments:
meri aankhen nam ho gai... apne bachchon ke liye aisa hi lagta hai
is rachna ko vatvriksh ke liye bhej dijiye, parichay, tasweer blog link ke saath rasprabha@gmail.com per
हर पंक्ति में एक सच छिपा हुआ है ...गहन भावों का संगम है इस रचना में ...।
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